35 वर्षों की परंपरा पर कोरोना का दंश, नहीं लगेगा पटना पुस्तक मेला



पटना। इस खबर के पढ़ने के बाद बिहार के तमाम पुस्तक प्रेमी के साथ ही प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने वाले निराश हो जाएंगे। 35 वर्षों की परंपरा कोरोना के दंश की वजह से टूटने जा रही है। बिहार का लोकप्रिय पटना पुस्तक मेला इस बार नहीं लगेगा। पटना पुस्तक मेले का इंतजार लाखों लोग साल भर करते हैं। 2003 से 2010 के बीच हरेक वर्ष लगभग पांच लाख से भी अधिक पुस्तक प्रेमी इसमें शामिल होते रहे हैं। हर साल इस समय गांधी मैदान में लगने वाले पटना पुस्तक मेला में सैकड़ों पुस्तक प्रेमी गुनगुने धूप में बैठकर पुस्तक पढ़ते दिखते थे।
इस बाबत सीआरडी अध्यक्ष और उपन्यासकार रत्नेश्वर ने अपने फेसबुक पेज पर पोस्ट करते हुए कहा है कि 35 वर्षों की परंपरा कोरोना की वजह से टूट रही है। पटना पुस्तक मेला बिहार-झारखंड के लिए एक बड़े सांस्कृतिक उत्सव की तरह हो गया है। इसमें आने वाले ख्यातिप्राप्त लेखकों का यहां आना इसे बड़ा बना देता है। लोकनृत्य, संगीत, नुक्कड़ नाटक, जन-संवाद, काव्य पाठ, कथा पाठ, चित्र कला प्रदर्शनी, फिल्म महोत्सव, पुरस्कार सम्मान आदि गतिविधियां इसे एक वैसा आयोजन बनाता है कि लोग साल भर इसका इंतजार करते हैं। प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने वालों के लिए भी यह मेला खास होता था। पिछले साल इसी समय यह मेला गांधी मैदान में लगा था। पिछले साल देश भर से ढ़ाई सौ प्रकाशक मेले में आए थे। मेला में पहुंचे लोगों की संख्या दो लाख के आसपास थी। हर साल 12 दिनों तक यह मेला चलता है।
1985 में शुरू हुआ था पटना पुस्तक मेला
बता दें पूरे देश में यह माना जाता है कि साहित्य की किताबें सबसे अधिक बिहार में पढ़ी जाती है, इसीलिए 1985 से छोटे शक्ल में शुरू हुआ पटना पुस्तक मेला की ख्याति आज पूरे देश में हो गई है। यहां देश-विदेश के सैकड़ों बड़े-छोटे प्रकाशक आते रहे हैं। पटना पुस्तक मेला ने खूब पढ़ता है बिहार की परंपरा को आगे बढ़ाकर खूब लिखता भी है बिहार की संस्कृति का विस्तार करने में शानदार भूमिका अदा की।
मेला अपने सांस्कृतिक आंदोलन के लिए जाना जाता है
पटना पुस्तक मेला भारत का तीसरा और दुनिया के दस प्रमुख पुस्तक मेलों में शामिल है। यह मेला अपने सांस्कृतिक आंदोलन के लिए जाना जाता है। इसी सन्दर्भ में अपने समय के विख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी ने एक बार पटना पुस्तक मेला में भाषण देते हुए कहा था कि देश की हो या न हो पर हिन्दी प्रदेशों की यदि कोई संस्कारधानी हो सकती है तो वह बिहार का पटना ही है। वहीं प्रतिष्ठित लेखक-आलोचक डॉक्टर नामवर सिंह ने अपने सामने चार हजार से भी अधिक श्रोताओं को देखकर कहा था कि यदि यहां आने से पहले मेरी मौत हो गई होती, तो मेरी आंखें खुली रह गई होतीं क्योंकि यह दृश्य देखना बाकी रह गया होता!


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